भारत में बाल श्रम कारण कानून व दुष्परिणाम Child Labour Introduction Types Causes How To Stop Effects & Laws In India In Hindi: कम आयु में बच्चों को पढ़ाने लिखाने एवं विकास के समुचित अवसर दिलाने के स्थान पर किसी रोजगार में लगा देना बाल श्रम (child labour) कहलाता है.
बाल श्रम से परिवार की आय बढ़ती है व आर्थिक स्थति में सुधार होता है, परन्तु इससे बालकों के स्वाभाविक शारीरिक व मानसिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है.
इसके कारण वे व्यक्तित्व के विकास के लिए जरुरी चीजों से वंचित हो जाते है. तथा समुचित बौद्धिक विकास में पीछे रह जाते है.
भारत में बाल श्रम एक सामाजिक बुराई है. इसके अंतर्गत बेहद कम आयु वर्ग के बालक बालिकाओं को कठोर शारीरिक व मानसिक श्रम कार्यों अथवा मजदूरी पर लगाया जाता है.
स्कुल जाने की इस उम्रः में अनियमित काम घंटे व असुरक्षा के कारण इनका भविष्य अन्धकारमय जाता है. भारत सरकार ने बाल श्रम को रोकने के लिए कई Child Labour low बनाए है. जिनके तहत इस समस्या को समाप्त किया जा सकता है.
भारत म बाल श्रम की समस्या गरीबी से जुड़ी हुई है. अधिकाँश बाल श्रमिक भूमिहीन खेतिहर मजदूरों, सीमांत किसानों, दस्तकारों और शहरी झुग्गियों में रहने वाले प्रवासी परिवारों से आते है.
केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के अनुसार 2011 की जनगणना में देश में कुल 43.53 लाख बाल श्रमिक है.
सबसे अधिक बाल श्रमिक उत्तरप्रदेश से 8.96 लाख व सबसे कम लक्षद्वीप से 28 है. बाल श्रमिक क्या है. भारतीय जनगणना की परिभाषा के अनुसार एक बाल श्रमिक वह है, जो दिन का बड़ा हिस्सा काम करने में लगाता है और 14 वर्ष से कम आयु का होता है.
1989 के बच्चों के अधिकारों पर राष्ट्रमंडल कन्वेंशन में बाल श्रमिक की उपरी आयु सीमा 18 वर्ष रखी गई थी.
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन 15 वर्ष से कम आयु के बच्चों को ही बाल श्रम में लेता है. भारत में 14 साल से ऊपर उम्रः वाले बच्चों को रोजगार के लिए पर्याप्त उम्रः माना गया है.
भारत में अत्यधिक गरीबी के चलते बाल श्रम एक सामाजिक समस्या का रूप ले चुका है. ग्रामीण गरीब अपनी जीविका का निर्वहन न कर पाने की स्थति में नौकरी की तलाश में शहरों की ओर पलायन करते है. अतः समाज के इन गरीब वर्ग परिवारों की बड़ी संख्या बच्चों की कमाई पर निर्भर रहने को मजबूर है.
रोजी रोटी के लिए इस प्रकार के परिवारों के बच्चों को कम उम्रः में ही काम पर जाकर अपने घर की पारिवारिक आय के लिए योगदान करना होता है. इस प्रकार के बच्चों के माँ बाप उन हालत में नही होते है,
कि अपनी सन्तान को किसी विद्यालय में गुणवतापूर्ण शिक्षा मुहैया करवा सके. उन्हें या तो स्कुल भेजा ही नही जाता है, अथवा कुछ समय के लिए ही स्कूल भेजा जाता है.
इसके परिणाम के रूप में आज जिन बच्चों की आयु स्कुल में पढ़ने खेलने कूदने की होती है, उन्हें एक मजदूर की भांति कार्य करने के लिए विवश होना पड़ता है.
अधिकांश फैक्ट्री अथवा उद्योग मालिक भी इस प्रकार के बच्चों को काम पर लगाने की अधिक वरीयता देते है. सस्ता श्रम व समय से अधिक उसका उपयोग करने पर भी बच्चें प्रतिकार नही कर पाते है. इस कारण उन्हें कम खर्च कर अधिक मुनाफा प्राप्त होता है.
ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चें स्वयं नियुक्त श्रमिकों क्र तौर पर या अवैतनिक पारिवारिक सहायकों की तरह काम करते है.
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चें अक्सर जानवर चराने, कृषि कार्यों, गृह आधारित उद्यमों, जैसे बीड़ी, हथकरघा, बुनाई, दस्तकारी, पापड़ बनाने आदि कार्यों में सलग्न रहते है.
शहरी क्षेत्रों में छोटे बच्चें उद्योगों और कार्यशालाओं में बीड़ी, दियासलाई या आतिशबाजी बनाने, कांच और चूड़ियाँ बनाने में, कालीनों की बुनाई, हथकरघा, हीरों की पोलिश, कुम्हारी, कागज के लिफ़ाफ़े, प्लास्टिक की चीजे बनाने और मत्स्य सर्वधन जैसा काम करते है.
दियासलाई और आतिशबाजी बनाने के उद्योगों में बड़ी मात्रा में कम उम्रः के बच्चें काम करते है. वे निर्माण स्थलों, पत्थरों की खानों में तथा माल लादने और उतारने का काम करते है.
होटलों और ढाबों में वे चाय और खाना देने का काम या दूध और सब्जी बेचने का काम अथवा घरेलू नौकरों, अख़बार बेचने वालों या गाड़ी साफ करने वालों का काम करते है. झुग्गियों में बच्चें कुलियों तथा आश्रित श्रमिकों का काम भी करते है.
ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में बच्चें अवैतनिक पारिवारिक श्रमिकों के रूप में या मालिकों के घरों में परिवारों द्वारा किये जाने वाले ठेके पर काम करने तथा अपने ही परिवार के छोटे खेतों या उद्यमों में काम करते है.
आम तौर पर घरों में किया जाने वाला काम कम शोषणकारी माना जाता है, मगर अक्सर परिवार के भीतर इन बच्चों के साथ सबसे बुरा सलूक किया जाता है. तथा बेहद कठिन हालातों के बिच उन्हें 15 से 20 घंटे तक काम करना पड़ता है. अकसर बाल श्रमिकों को कम ही वेतन दिया जाता है. कई स्थानों पर उन्हें अमानवीय स्थति व जीवन की न्यूनतम सुरक्षा के अभाव में भी काम करने के लिए मजबूर किया जाता है.
नगरों तथा बड़े शहरों में एक बड़ा तबका निराश्रित बच्चों का होता है. इस प्रकार के बच्चों के आगे पीछे कोई नही होता है, न ही इनका अपना कोई घर होता है. रेल की पटरियों या फुटपाथों पर ही ये रहने को मजबूर है. गाँव में इनके परिवार की नाजुक परिस्थियाँ और लड़ाई झगड़ा इन्हें भागने के लिए मजबूर कर देते है, तथा ऐसे शहरों में आकर एक असुरक्षित समुदाय का हिस्सा बन जाते है.
बाल श्रम के प्रभाव निम्न है.
माता पिता अथवा अभिभावक द्वारा बालक को श्रम बंधक बनाने की स्थति में यह कानूनी प्रावधान किया गया है. इस अधिनियम के अनुसार बालकों को श्रम बंधक रखने वाले किसी भी मौखिक अथवा लिखित समझौतों को निरस्त बना दिया गया है.
कारखाना कानून के तहत उन सभी व्यक्तियों को बालक की श्रेणी में शामिल किया गया है. जिन्होंने अभी तक 15 वर्ष की उम्रः पूरी नही की है.
कानून के तहत बालकों और महिलाओं से संध्या 7 बजे से प्रातः 6 बजे तक कार्य कराएं जाने का प्रतिषेधः है. यह कानून बच्चों को काम पर लगाने को गैर कानूनी घोषित करता है.
इस कानून में सभी प्रकार की खानों में बालकों के नियोजन का प्रतिषेधः किया गया है.
इसके तहत 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को प्रशिक्षु के रूप में काम करने हेतु नियोजन नही किया जा सकता है.
इस कानून द्वारा इस प्रकार के उद्योगों में किसी बालक के नियोजन को प्रतिबंधित किया गया है.
वर्ष 1979 में सरकार ने बाल श्रम को रोकने के उपायों पर पहली बार गुरुपदस्वामी कमेटी का गठन किया. कमेटी ने न=विस्तृत अध्ययन कर बताया कि जब तक गरीबी रहेगी तब तक बाल श्रम रोकना संभव नही है, कानून के जरिये इन्हें पूर्ण व्यवहारिक रूप से खत्म नही किया जा सकता.
इसलिए एक विकल्प के तौर पर जोखिम वाले कार्यों में बच्चों को लगाने पर पूर्णत रोक लगा दी जावे. तथा गैर पप्रतिबंधित क्षेत्रों में बालकों के लिए कार्य स्थति, समय, मजदूरी बेहतर हो. इसी कमेटी की सिफारिश पर 1986 में बाल श्रम (प्रतिषेध एवं विनियमन) कानून बनाया गया था.
इस कानून के तहत सभी घरेलू इकाइयों को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्र में 14 वर्ष से कम आयु के बालक को काम पर लगाने की पूर्ण मनाही है. इस कानून की अवमानना करने की स्थति में दोषी व्यक्ति को तीन माह से एक वर्ष तक कारावास या 10-20 हजार रूपये जुर्माना अथवा दोनों भी हो सकते है.
सरकार द्वारा 2015 में बाल श्रम प्रतिषेध कानून में किये गये बदलाव के अनुसार 14 वर्ष से कम आयु के बच्चें अपने परिवार के पुश्तैनी कार्य में हाथ बंटा सकते है, इसके लिए यह अनुबंध किया गया है, कि कार्य खतरनाक नही होना चाहिए.
इस कानून के पूर्व के 1986 के कानून के तहत 14 वर्ष के बच्चों को किसी भी तरह के श्रम कार्य में लगाया जाना प्रतिबंधित था.
वर्ष 1979 में गठित गुरुपद स्वामी समिति के सुझावों पर भारत सरकार द्वारा अगस्त 1987 को एक राष्ट्रीय बाल श्रम नीति का निर्धारण किया गया.
भारत सरकार ने 26 अप्रैल 2013 को नयी राष्ट्रीय बाल नीति घोषित की. इसमें 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति/महिला को बालक माना गया है.